Written by : Sanjay kumar
दिनांक: 22 जून 2025
क्या आपात स्थिति में भी चेतावनी जरूरी है?
देश में साइबर क्राइम के बढ़ते मामलों को रोकने हेतु सरकार द्वारा मोबाइल कॉल्स पर प्रसारित “साइबर सुरक्षा चेतावनी संदेश” (अमिताभ बच्चन की आवाज़ में) एक जागरूकता अभियान के रूप में शुरू किया गया था। परंतु अब यह जनहित मुहिम गंभीर मानवाधिकार और जीवन-सुरक्षा संबंधी विवाद का विषय बनती जा रही है।
📌 प्रमुख मुद्दा:
हर बार किसी भी नंबर पर कॉल करने से पहले 20–30 सेकंड तक साइबर क्राइम संबंधी संदेश सुनाया जाता है। यह सभी कॉल्स पर लागू होता है — यहां तक कि इमरजेंसी सेवाओं (112, 108, 100, 101 आदि) और आपातकालीन स्थिति में यदि आपको किसी से सहायता की जरूरत हो पर भी।
📊 तथ्य और आंकड़े जो चिंता का विषय हैं:
- प्रतिक्रिया समय में देरी:
- RTI और CAG रिपोर्ट (कर्नाटक, म.प्र.) में सामने आया है कि 50–60% इमरजेंसी मामलों में ‘गोल्डन ऑवर’ के भीतर एम्बुलेंस या पुलिस नहीं पहुंची।
- कॉल से जुड़ने में 20–30 सेकंड की देरी से कार्डियक अरेस्ट, ब्रेन स्ट्रोक, दुर्घटना या महिला सुरक्षा जैसे मामलों में जान पर खतरा बढ़ता है।
- कानूनी अधार पर सवाल:
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार भारत के नागरिक को प्राप्त है।
- Puttaswamy बनाम भारत सरकार (2017) में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया था। बार-बार चेतावनी थोपना सूचना-स्वतंत्रता और डिजिटल ऑटोनॉमी का उल्लंघन माना जा सकता है।
- तकनीकी विकल्प होने के बावजूद थोपे गए उपाय:
- अमेरिका, यूके, सिंगापुर जैसे देशों में ऐसी चेतावनियाँ केवल SMS, pop-ups या banking apps के ज़रिये दी जाती हैं — कॉल अवरोध के बिना।
- जनता की बढ़ती नाराज़गी:
- सोशल मीडिया पर हज़ारों यूज़र्स ने शिकायत की है कि “हर कॉल पर चेतावनी सुनना मानसिक रूप से परेशान करता है, विशेषकर जब ज़रूरत गंभीर होती है।”
- यूज़र अधिकार: “सहमति” का सिद्धांत
‘Right to Privacy’, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने Puttaswamy judgement (2017) में मौलिक अधिकार घोषित किया है, कहता है:
“व्यक्ति की सूचना पर उसका अधिकार है, और बिना सहमति के किसी सूचना को थोपना उसकी निजता का उल्लंघन हो सकता है।” - 📌 जब एक यूज़र अपनी कॉल पर बार-बार संदेश नहीं सुनना चाहता, लेकिन फिर भी सुनने को मजबूर है – तो यह “नॉन-कंसेंट कम्युनिकेशन” की श्रेणी में आता है।
✅ साइबर चेतावनी के लाभ:
- लोगों में डिजिटल सुरक्षा को लेकर जागरूकता बढ़ी।
- OTP फ्रॉड, नकली लॉटरी कॉल्स व बैंक धोखाधड़ी को लेकर चेतना फैली।
❌ परंतु इसके दुष्परिणाम भी उतने ही गंभीर हैं:
- इमरजेंसी में सहायता मिलने में देरी, जिससे जान जोखिम में पड़ती है।
- उपभोक्ता की सहमति के बिना चेतावनी सुनाना निजता का हनन है।
- सेवा प्रदाताओं पर तकनीकी बोझ और उपभोक्ता संतोष में गिरावट।
⚖️ कानूनी, तकनीकी और नैतिक समाधान:
सुधार प्रस्ताव | विवरण |
---|---|
पहली कॉल पर चेतावनी | दिन में केवल एक बार सुनाया जाए, हर कॉल पर नहीं। |
‘Skip’ विकल्प | कॉल के समय उपयोगकर्ता को चेतावनी छोड़ने का विकल्प मिले। |
इमरजेंसी नंबरों पर अपवाद | 112, 108, 100, 101 जैसे नंबरों पर यह चेतावनी स्वतः हटे। |
वैकल्पिक माध्यम | SMS, IVR, बैंक लॉगिन, ऐप नोटिफिकेशन द्वारा चेतावनी दें। |
समीक्षा तंत्र | TRAI व DoT द्वारा मासिक फीडबैक सिस्टम लागू किया जाए। |
🗣️ मानवता की आवाज़
“एक जीवन की रक्षा सबसे बड़ी नीति है। यदि चेतावनी जान बचाने में बाधा बनती है, तो वह चेतावनी नहीं, अपराध बन जाती है।”
यह प्रेस विज्ञप्ति सरकार, टेलीकॉम प्राधिकरण, और जनता के बीच संतुलन की मांग करती है। साइबर अपराध रोकना महत्वपूर्ण है — लेकिन एक आपातकालीन कॉल में बाधा डालना संविधान, मानवता और तकनीकी विवेक — तीनों के विरुद्ध है।
(इस लेख में अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति कोई भी उत्तरदायी नहीं है।)
यदि आप इस मुद्दे से सहमत हैं तो इसे मीडिया, सोशल मीडिया और लोकप्रतिनिधियों तक पहुँचाएं।
आपकी आवाज़, किसी की जान बचा सकती है।