Written by : Sanjay kumar
कोटा : 23 अगस्त 2025 |
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 11 अगस्त के निर्देश में संशोधन करते हुए स्पष्ट किया है कि स्टरलाइज़, वैक्सीनेट और डिवार्म किए गए कुत्तों को उनके मूल क्षेत्र में ही छोड़ा जाएगा, जबकि केवल आक्रामक या रेबीज़ संदिग्ध कुत्तों को सार्वजनिक स्थानों पर नहीं रखा जाएगा। साथ ही अदालत ने यह भी कहा है कि पब्लिक फीडिंग पर रोक होगी और स्थानीय निकायों को निर्धारित फीडिंग ज़ोन बनाने होंगे। यह आदेश पशु–कल्याण और जन–सुरक्षा के बीच संतुलन की दिशा में महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
1) प्रशासन का ‘शेल्टर’ मॉडल: क्या गलत है—और क्या ज़रूरी है
जब प्रशासन स्टरलाइज़ेशन और वैक्सीनेशन तक अस्थायी रूप से कुत्तों को शेल्टर में रखता है—या आक्रामक और रेबीज़–संदिग्ध कुत्तों को सार्वजनिक स्थानों से हटाता है—तो यह सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा दिशा–निर्देशों और एबीसी (Animal Birth Control) नियम, 2023 की मंशा के अनुरूप है। उद्देश्य हत्या नहीं, बल्कि CNVR (कैप्चर–न्यूटर–वैक्सिनेट–रिलीज़) के जरिए मानवीय नियंत्रण है।
2) आक्रामक कुत्ते की परिभाषा का भ्रम
सबसे बड़ा सवाल यही है कि कुत्ता आक्रामक है या नहीं, यह तय कौन करेगा?
- क्या केवल नगर निगम का अधिकारी या एनजीओ कार्यकर्ता यह निर्णय करेगा?
- यदि किसी डॉग को पकड़कर शेल्टर में डाल दिया गया तो इसका क्या वैज्ञानिक प्रमाण होगा कि वह आक्रामक था?
- यदि वैक्सीनेशन और नसबंदी के बाद उसी कुत्ते को उसी इलाके में वापस छोड़ दिया गया तो यह कैसे तय होगा कि अब वह आक्रामक नहीं है और समाज के लिए खतरा नहीं बनेगा?
यह पूरी प्रक्रिया वैज्ञानिक और पारदर्शी मूल्यांकन के बिना केवल औपचारिकता बन सकती है। समाज सवाल कर रहा है कि आक्रामकता का मूल्यांकन किस आधार पर और किसकी निगरानी में होगा ताकि यह किसी भी तरह की मनमानी या ढोंग न बन जाए।
3) “डॉग लव” की चयनात्मकता बनाम वास्तविक पशु–प्रेम
डॉग लवर्स की आवाज़ें बुलंद हैं, पर गाय, ऊँट, भेड़, बकरी और मुर्गा जैसे शाकाहारी और पूज्य माने जाने वाले जानवरों के लिए वैसी संगठित आवाज़ें क्यों नहीं उठतीं? यह वही पशु हैं जो समाज को दूध, ऊन, श्रम और जीवन–निर्वाह के साधन देते हैं, फिर भी इन्हें बेरहमी से काटा जाता है। और विडंबना यह है कि इसके लिए प्रशासन ने खुद लाइसेंस भी जारी कर रखे हैं। सवाल यह है कि जब प्रशासन लाभकारी और पूजनीय पशुओं के वध पर लाइसेंस जारी कर सकता है तो इन पर डॉग लवर्स क्यों खामोश रहते हैं? क्या यही चयनात्मक पशु–प्रेम है?
4) “लाइसेंस” का सच: लाभकारी पशु काटे जाएँ—और सवाल न हों?
भारत में पशुओं का वध केवल लाइसेंसशुदा और मान्यता प्राप्त स्लॉटर–हाउस में ही वैध है। प्रिवेंशन ऑफ क्रुएल्टी टू एनिमल्स (स्लॉटर–हाउस) रूल्स, 2001 यह स्पष्ट करते हैं कि नगर–क्षेत्रों में बिना मान्यता या लाइसेंस कटान वर्जित है और पशु–चिकित्सक द्वारा एंटे– और पोस्ट–मॉर्टम जांच अनिवार्य है। FSSAI (Food Safety and Standards Authority of India) के नियम भी मीट/स्लॉटर यूनिट्स को कड़े मानकों का पालन कराते हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या लाइसेंस मिलने मात्र से यह क्रूरता नैतिक रूप से स्वीकार्य हो जाती है?
5) एनजीओ और डॉग पॉलिटिक्स पर सवाल
कई एनजीओ केवल कुत्तों के नाम पर पैसा और फंडिंग जुटाने का जरिया बन गए हैं। इनमें से अनेक संचालक खुद मांसाहारी हैं और दूसरी प्रजातियों के वध को स्वीकार्य मानते हैं, लेकिन डॉग लवर्स के नाम पर बड़े–बड़े अभियान चलाते हैं। समाज यह सवाल पूछ रहा है कि क्या यह “एनिमल वेलफेयर” है या केवल “डॉग पॉलिटिक्स” और “एनजीओ बिजनेस”?
6) समाज की चेतावनी
- आम नागरिक यह समझने लगा है कि जब प्रेम केवल चुनिंदा पशुओं तक सीमित हो और बाकियों की बलि चुपचाप स्वीकार की जाए तो यह वास्तविक पशु–प्रेम नहीं, बल्कि स्वार्थ और दिखावे की राजनीति है।
- यदि डॉग लवर्स वास्तव में पशु–प्रेमी हैं तो उन्हें गाय, ऊँट, भेड़, बकरी और अन्य पशुओं की हत्या के खिलाफ भी उतनी ही मजबूती से आवाज उठानी चाहिए।
- समाज यह भी पूछ रहा है कि यदि प्रशासन स्ट्रीट डॉग्स के लिए शेल्टर बनाकर उनकी जान बचा रहा है तो यह गलत कैसे है, जबकि दूसरी ओर लाभकारी पशुओं के वध के लिए प्रशासन खुद लाइसेंस जारी करता है?
7) हमारी माँगें
- आक्रामकता की परिभाषा और परीक्षण स्पष्ट हो – यह तय करने के लिए स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति बने कि कौन सा कुत्ता वास्तव में आक्रामक है।
- स्टरलाइज़ेशन और वैक्सीनेशन के बाद वैज्ञानिक निगरानी हो – ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि छोड़े गए डॉग्स समाज के लिए खतरा न बनें।
- स्लॉटर–हाउस पारदर्शिता – सभी लाइसेंस, पशु–संख्या और जांच रिपोर्ट सार्वजनिक पोर्टल पर उपलब्ध हों।
- एनजीओ की जवाबदेही – फंडिंग, खर्च और कामकाज का पूरा विवरण सार्वजनिक किया जाए।
- जन–सुरक्षा सर्वोपरि – स्कूल, अस्पताल और वृद्धाश्रम क्षेत्रों को “जीरो डॉग जोन” घोषित कर निगरानी बढ़ाई जाए।
8) सार
प्रशासन जब एबीसी आधारित शेल्टरिंग और ट्रीटमेंट करता है तो वह कानूनसम्मत और हिंसामुक्त समाधान की ओर बढ़ता है। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि आक्रामकता का मूल्यांकन कौन करेगा और उसका प्रमाणन कैसे होगा। यदि यह तय नहीं हुआ तो शेल्टरिंग और रिलीज़ की पूरी प्रक्रिया केवल कागजी औपचारिकता बन जाएगी। दूसरी ओर, लाइसेंस प्राप्त स्लॉटर–हाउस में लाभकारी और पूजनीय पशुओं की हत्या का विरोध न करना भी पशु–प्रेम की अवधारणा को खोखला बना देता है।
इसलिए अब समय आ गया है कि समाज और प्रशासन दोनों मिलकर समान संवेदना पर आधारित वास्तविक एनिमल–लव की दिशा में कदम बढ़ाएँ और चयनात्मक “डॉग पॉलिटिक्स” से बाहर निकलें।
यह लेख सुप्रीम कोर्ट के आदेश, प्रशासनिक प्रावधानों और समाज में उठ रहे गंभीर प्रश्नों को सामने रखते हुए यह स्पष्ट करती है कि असली पशु–प्रेम चुनिंदा जानवरों तक सीमित नहीं हो सकता।
(इस लेख में अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति कोई भी उत्तरदायी नहीं है।)
