Written by : Sanjay kumar
24 दिसम्बर 2025
नई दिल्ली/राजस्थान/हरियाणा/गुजरात,
अरावली पर्वत श्रृंखला—जो भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है—आज अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रही है। जलवायु संतुलन, भूजल संरक्षण, जैव विविधता और उत्तर भारत के पर्यावरणीय भविष्य के लिए अनिवार्य मानी जाने वाली अरावली पर वर्षों से खनन, अतिक्रमण और नीतिगत ढिलाई का दबाव बढ़ता रहा है। इसी पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार ने बड़ा कदम उठाते हुए अरावली क्षेत्र में नई माइनिंग लीज पर पूर्ण रोक लगाने के निर्देश जारी किए हैं।
वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने राजस्थान, हरियाणा और गुजरात के मुख्य सचिवों को स्पष्ट निर्देश देते हुए कहा है कि जब तक नई, व्यापक और विज्ञान-आधारित गाइडलाइन तैयार नहीं हो जाती, तब तक अरावली में किसी भी प्रकार की नई खनन लीज जारी नहीं की जाएगी। यह फैसला केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के जीवन संरक्षण से जुड़ा हुआ है।
अरावली पर्वतमाला को बचाने के लिए केंद्र सरकार ने बड़ा फैसला लिया है। अरावली क्षेत्र में किसी भी तरह के नए खनन पट्टे देने पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है।
अरावली क्यों है इतनी अहम? (जन-जीवन से जुड़ा सच)
- अरावली रेगिस्तान के विस्तार को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है।
- यह भूजल रिचार्ज का प्रमुख स्रोत है; दिल्ली-एनसीआर, राजस्थान और हरियाणा की जल सुरक्षा इससे जुड़ी है।
- अरावली धूल-आंधी और हीट-वेव को कम करने में सहायक है।
- यहाँ की जैव विविधता वन्यजीव, औषधीय वनस्पति और स्थानीय आजीविका का आधार है।
- अरावली का क्षरण सीधे तौर पर स्वास्थ्य संकट, जल संकट और जलवायु अस्थिरता को जन्म देता है।
अरावली पर बवाल की जड़: खनन, कॉर्पोरेट दबाव और नीतिगत ढिलाई
पिछले तीन दशकों में अरावली क्षेत्र में पत्थर, बजरी और अन्य खनिजों के लिए खनन तेज़ हुआ। कई मामलों में वन भूमि की पहचान कमजोर की गई, राजस्व रिकॉर्ड बदले गए, और पर्यावरणीय स्वीकृतियों की शर्तों का उल्लंघन हुआ।
आरोप यह भी रहे कि कॉर्पोरेट हितों को लाभ पहुंचाने के लिए नियमों की ढील, विभागीय मिलीभगत, और स्थानीय स्तर पर निगरानी की विफलता ने अवैध खनन को पनपने दिया।
राज्य सरकारों का रुख: विकास बनाम संरक्षण की खींचतान
- राजस्थान और हरियाणा में समय-समय पर खनन को रोजगार और राजस्व से जोड़कर आगे बढ़ाया गया।
- गुजरात में भी कुछ क्षेत्रों में औद्योगिक गतिविधियों के दबाव रहे।
- हालांकि बढ़ते पर्यावरणीय नुकसान और न्यायिक सख्ती के बाद राज्यों को अपने रुख में बदलाव करना पड़ा, लेकिन मैदान में पालन की कमी बार-बार सामने आती रही।
केंद्र सरकार का ताज़ा रुख: सख्ती का संकेत
केंद्र ने स्पष्ट किया है कि:
- पूरी अरावली रेंज में नई माइनिंग लीज पर रोक समान रूप से लागू होगी।
- मौजूदा खदानों पर सख्त रेगुलेशन, अतिरिक्त शर्तें और निगरानी होगी।
- ICFRE (इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एंड एजुकेशन) को निर्देश दिया गया है कि वह अरावली के संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करे, जहाँ खनन पूरी तरह प्रतिबंधित होना चाहिए।
- विज्ञान-आधारित प्रबंधन योजना तैयार की जा रही है, जो पर्यावरणीय प्रभाव, कैरिंग कैपेसिटी, और संरक्षण योग्य क्षेत्रों का आकलन करेगी।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका: 1990 से 2025 तक की दिशा-रेखा
सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर अरावली की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण निर्देश दिए हैं, जिनका सार इस प्रकार है:
- 1990 के दशक से ही कोर्ट ने अरावली को पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र मानते हुए खनन पर नियंत्रण की बात कही।
- MC Mehta बनाम भारत संघ जैसे मामलों में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पर्यावरण संरक्षण विकास से ऊपर है।
- कोर्ट ने वन भूमि की व्यापक व्याख्या करते हुए कहा कि केवल रिकॉर्ड नहीं, बल्कि प्राकृतिक स्वरूप भी मायने रखता है।
- 100 मीटर का मुद्दा:
- अरावली और संरक्षित क्षेत्रों के आसपास बफर ज़ोन की अवधारणा को मान्यता दी गई, ताकि खनन और निर्माण से होने वाला सीधा नुकसान रोका जा सके।
- कई मामलों में कोर्ट ने 100 मीटर या उससे अधिक दूरी पर प्रतिबंध/नियंत्रण की बात कही, ताकि पारिस्थितिकी सुरक्षित रहे।
- 2020 के बाद कोर्ट ने राज्यों को बार-बार फटकार लगाई कि पुराने आदेशों का पालन क्यों नहीं हुआ।
- 2025 तक के ताज़ा रुख में कोर्ट का संदेश साफ है—नई गाइडलाइन आने तक यथास्थिति, अवैध खनन पर शून्य सहनशीलता, और केंद्र-राज्य दोनों की जवाबदेही।
असल में 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने 2025 में ऐसा कोई सीधा फैसला नहीं दिया कि—
“केवल 100 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले पहाड़ ही पर्वत श्रृंखला माने जाएंगे और 100 मीटर से कम ऊँचाई वाले नहीं।”
फिर “100 मीटर” वाली बात आई कहाँ से?
यह बिंदु तीन स्तरों पर उभरा:
1️⃣ केंद्र/राज्य सरकारों की दलील
कुछ मामलों में सरकारों ने यह तर्क दिया कि:“100 मीटर से ऊँचाई वाला ही पर्वत, उससे कम नहीं”
- जिन पहाड़ियों की ऊँचाई 100 मीटर से कम है,
- वे “अरावली पर्वत श्रृंखला” की परिभाषा में नहीं आतीं,
- इसलिए वहाँ खनन/निर्माण पर सख्त रोक लागू नहीं होनी चाहिए।
➡️ यह तर्क पर्यावरण संरक्षण को कमजोर करने वाला माना गया।
2️⃣ ड्राफ्ट गाइडलाइंस और तकनीकी रिपोर्ट्स
- कुछ ड्राफ्ट नोटिफिकेशन / तकनीकी दस्तावेजों में
“हिल” और “माउंटेन” को ऊँचाई के आधार पर वर्गीकृत करने की कोशिश हुई। - इसी से 100 मीटर का आंकड़ा सार्वजनिक बहस में आया,
लेकिन यह कानून नहीं था।
3️⃣ सुप्रीम कोर्ट की 2025 की सख्त टिप्पणी
2025 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा:
🔴 अरावली की पहचान केवल ऊँचाई (मीटर) से नहीं हो सकती
🔴 पर्वत श्रृंखला को उसके भूवैज्ञानिक स्वरूप, निरंतरता, पारिस्थितिकी और ऐतिहासिक अस्तित्व से पहचाना जाएगा
कोर्ट ने यह भी कहा कि:
- 100 मीटर जैसे कृत्रिम मानक
- खनन को वैध बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किए जा सकते
- यह अरावली को टुकड़ों में तोड़ने की कोशिश है।
🔍 सुप्रीम कोर्ट का असली सिद्धांत (2025)
सरल भाषा में कोर्ट का रुख यह है:
- ✔️ अगर कोई पहाड़ी:
- अरावली की भूगर्भीय निरंतरता का हिस्सा है
- पारिस्थितिकी में भूमिका निभाती है
- ऐतिहासिक रूप से अरावली मानी जाती रही है
➡️ तो उसकी ऊँचाई चाहे 30 मीटर हो या 300 मीटर,
➡️ वह अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा मानी जाएगी।
❌ कोर्ट ने क्या खारिज किया?
- “100 मीटर से कम = अरावली नहीं”
- “राजस्व रिकॉर्ड में पहाड़ नहीं लिखा तो अरावली नहीं”
- “ऊँचाई कम है इसलिए खनन चल सकता है”
इन तर्कों को कोर्ट ने पर्यावरण के साथ छल माना।
🟢 निष्कर्ष
2025 में सुप्रीम कोर्ट ने 100 मीटर वाली थ्योरी को स्वीकार नहीं किया,
बल्कि इसे अरावली को कमजोर करने की कोशिश मानते हुए नकार दिया।
जहाँ सरकारें और सिस्टम चूके
- निगरानी तंत्र कमजोर रहा।
- पर्यावरणीय स्वीकृतियों की शर्तों का पालन कागज़ों तक सीमित रहा।
- स्थानीय प्रशासन और खनन विभाग पर मिलीभगत के आरोप लगे।
- कॉर्पोरेट लाभ को पर्यावरण से ऊपर रखा गया।
- कोर्ट के आदेशों को आंशिक या देर से लागू किया गया।
अगर अरावली नहीं बची तो क्या होगा?
- दिल्ली-एनसीआर और आसपास के इलाकों में भयंकर जल संकट।
- रेगिस्तान का तेज़ी से फैलाव।
- तापमान में असामान्य वृद्धि, धूल-प्रदूषण और बीमारियाँ।
- वन्यजीवों का विस्थापन और जैव विविधता का नाश।
- आने वाली पीढ़ियों के लिए असुरक्षित जीवन।
यह केवल पहाड़ नहीं, हमारा भविष्य है
केंद्र सरकार का ताज़ा फैसला एक सकारात्मक शुरुआत है, लेकिन असली परीक्षा ज़मीन पर ईमानदार क्रियान्वयन की होगी। सुप्रीम कोर्ट की मंशा स्पष्ट है—अरावली बचेगी तो जीवन बचेगा। अब ज़रूरत है कि राज्य सरकारें, प्रशासन, न्यायपालिका और समाज मिलकर कॉर्पोरेट दबाव और तात्कालिक लाभ से ऊपर उठें।
अरावली को बचाना पर्यावरण का नहीं, अस्तित्व का सवाल है।
