Written by : Sanjay kumar
जयपुर, 29 दिसम्बर। अरावली पर्वतमाला की परिभाषा और संरक्षण को लेकर चल रहे बहुचर्चित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम कदम उठाते हुए केंद्र सरकार के तथाकथित “100 मीटर नियम” को स्वीकार करने वाले अपने ही पूर्व आदेश पर रोक लगा दी है। अदालत ने स्पष्ट किया है कि जब तक सभी तकनीकी, वैज्ञानिक और पर्यावरणीय पहलुओं की निष्पक्ष और विस्तृत समीक्षा नहीं हो जाती, तब तक 20 नवंबर को दिया गया आदेश लागू नहीं किया जाएगा और यथास्थिति बनी रहेगी।
सुप्रीम कोर्ट ने पहले अपने आदेश में यह माना था कि अरावली क्षेत्र में जमीन से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंची भू-आकृतियों को अरावली पहाड़ी माना जाएगा, जबकि 500 मीटर के दायरे में स्थित दो या अधिक ऐसी पहाड़ियों को अरावली रेंज की श्रेणी में रखा जाएगा। इस परिभाषा को लेकर पर्यावरणविदों और सामाजिक संगठनों ने गंभीर आपत्तियां दर्ज कराई थीं।
आपत्तिकर्ताओं का कहना था कि 100 मीटर की सीमा तय करने से अरावली का बड़ा हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकता है, जिससे खनन गतिविधियों को बढ़ावा मिलने का खतरा पैदा होगा। अरावली पर्वतमाला भूजल संरक्षण, जैव विविधता के संरक्षण और थार मरुस्थल के विस्तार को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, ऐसे में परिभाषा का संकुचित होना पर्यावरणीय संतुलन के लिए घातक हो सकता है।
इन आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कई तकनीकी और वैज्ञानिक सवालों पर जवाब मांगा है। साथ ही, पूरे मामले की गहराई से जांच के लिए एक हाई पावर्ड एक्सपर्ट कमेटी के गठन का भी निर्देश दिया गया है, जो अरावली पहाड़ियों और रेंज की परिभाषा, 500 मीटर के दायरे की वैज्ञानिकता, खनन पर पूर्ण प्रतिबंध या सशर्त अनुमति जैसे मुद्दों का अध्ययन करेगी।
मामले की सुनवाई प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने की, जिसमें जस्टिस जे.के. माहेश्वरी और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल हैं। पीठ ने साफ किया कि अगली सुनवाई तक 20 नवंबर का आदेश प्रभावी नहीं रहेगा। इस मामले की अगली सुनवाई 21 जनवरी 2026 को निर्धारित की गई है।
सुनवाई के दौरान अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि उसके कुछ अवलोकनों को गलत संदर्भ में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि किसी भी अंतिम निर्णय से पहले एक ठोस, निष्पक्ष और वैज्ञानिक रिपोर्ट का होना अनिवार्य है।
गौरतलब है कि इससे पहले पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की समिति ने सिफारिश की थी कि अरावली जैसी प्राचीन पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के लिए स्पष्ट, व्यापक और वैज्ञानिक परिभाषा तय की जानी चाहिए। समिति ने यह भी कहा था कि पहाड़ियों की सहायक ढलानें, आसपास की भूमि और संबंधित भू-आकृतियां भी अरावली का अभिन्न हिस्सा मानी जाएं।
यह मामला लंबे समय से चल रहे टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपद प्रकरण से भी जुड़ा हुआ है, जिसके तहत देशभर में वन और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए जाते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि अरावली क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति, समय के साथ हुए बदलाव और पर्यावरणीय प्रभावों का स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा अध्ययन किए बिना कोई भी अंतिम फैसला लेना उचित नहीं होगा।
अदालत ने स्पष्ट किया है कि अरावली पर्वतमाला के संरक्षण से जुड़ा निर्णय केवल प्रशासनिक सुविधा नहीं, बल्कि पर्यावरणीय भविष्य से जुड़ा संवेदनशील विषय है, जिस पर सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर ही अंतिम फैसला किया जाएगा।
